मंगलवार, 30 दिसंबर 2008


ग़ज़ा पर इसराइल के हमले : हमारा अह्तेजाज !!



ग़ज़ा पर इसराइल के वहशियाना हमले
हमारा अह्तेजाज
हर इंसानियत-पसंद का अह्तेजाज !!

Where is Human Rights?
Is this what you call : Road to Peace??
UNO = United Nonsense !!

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008


एक किताब हो मोहब्बत की ...



हमारे एक ब्लॉगर साथी ने पूछा है के:
तुमने "पागल लड़की" को मशूरा तो दे दिया, मगर उससे यह भी पूछा के उसने ख्वाब देखा या कोई दुआ मांगी थी?
चलिए .... उसी "पागल आंखों वाली लड़की" से ही पूछ लेते हैं ...
*********


एक अजीब सी ख़ाहश लिख बैठी हूँ

जी में है
के
एक किताब हो मोहब्बत की
जिसका नाम तमन्ना हो
बाब हो उसके उतने ही
जितनी मेरी उम्र हो

जिसके हर सफ्हे पे रखे
ख़ाहशों के फूल हो
ख़ाहशें भी ऐसी
जिस में एक तमसील हो

उस तमसील में सर ता पा
मेरी अपनी ही तकमील हो

मेरे साहर
मोहब्बत की उस किताब में
ऐसा कुछ तुम भी लिखो
जो किसी ने अबतक लिखा ना हो

सुनो
मेरी जान !
मैं तो एक अजीब सी
खाहिश लिख बैठी हूँ
अपने रब से तुम्हें
सिर्फ़
एक दिन के लिए मांग बैठी हूँ

मेरे साहर
मेरा यक़ीन कहता है
तुम्हारे साथ एक दिन में
कई जन्मों का सफ़र रहेगा !!

बाब = chapter
तमसील = मिसाल (example)
सर ता पा = सर से पैर तक
तकमील = completeness
साहर = जादूगर


poetess = निगहत नसीम

सोमवार, 22 दिसंबर 2008


पागल आंखों वाली लड़की



पागल आंखों वाली लड़की
इतने महेंगे ख़्वाब ना देखो
थक जाओगी

कांच से नाज़ुक ख़्वाब तुम्हारे
टूट गए तो पछताओगी
तुम क्या जानो ...!

ख़्वाब... सफ़र की धुप के तीशे
ख़्वाब... अधोरी रात का दोज़ख़
ख़्वाब... ख़यालों का पछतावा

ख़्वाबों का हासिल = तन्हाई
महेंगे ख़्वाब खरीदना हों तो
आँखें बेचना पड़ती हैं
रिश्ते भूलना पड़ते हैं

अंदेशों की रेत ना फानको
ख़्वाबों की ओट सराब ना देखो
प्यास ना देखो
इतने महेंगे ख़्वाब ना देखो
थक जाओगी
.....


तीशा = कुल्हाड़ी
दोज़ख़ = नरक
अंदेशा = चिंता


poet = मोहसिन नक़वी

रविवार, 21 दिसंबर 2008


मोहब्बत बड़े नसीब की बात है...


मोहब्बत बड़ा खूबसूरत जज़्बा है, पता नही चलता कब और कैसे दिल में उभर आता है ... जैसे बरसात की अँधेरी रात में जुगनू झिलमिला उठें ... या जैसे मन्दिर में कोई चुपके से दिया जला दे.

मोहब्बत चाहे किसी को भी क्यूँ ना हो जाए ... दिल को इतना नर्म कर देती है के आंसू का बीज भी हर वक़्त फूल देने को तैयार हो जाता है.

मोहब्बत कोशिश या महनत से हासिल नही होती, यह तो नसीब है बलके बड़े ही नसीब की बात है. ज़मीन के सफ़र में अगर कोई चीज़ आसमानी है तो वह मोहब्बत ही है.

शनिवार, 20 दिसंबर 2008


अली बाबा की मजबूरी


फ़्रिज
रंगीन टीवी
ऑटोमेटिक वाशिंग मशीन
डीवीडी और लैपटॉप भी
मारुती ना सही , नानो ही सही
नंगे भूके रिश्तेदारों से परे
पोश कालोनी में एक अच्छा सा बंगला
चमचमाती साडियां बीवी की ख़ातिर
और कुछ गहने भी
बच्चों के लिए
दम बखुद कर देने वाले
जापानी खिलोने
गल्फ (gulf) की एक और ट्रिप
बहुत ज़रूरी हो गई है

बेचारा बद-बख्त अली बाबा
जैसे तैसे
हिर्स-व-हवस के ग़ार में दाखिल तो हो गया है
लेकिन बाहर आए कैसे
"खुल जा सिम सिम"
कहना भूल गया है !!


poet = जब्बार जमील

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008


रोया हूँ यूँ के ...


इस दर्जे अहतियात से लिखा है ख़त उसे
रोया हूँ यूँ के हर्फ़ भी गीले नही हुऐ

दर्जे = श्रेणी
अहतियात = सावधानी
हर्फ़ = अक्षर


मंगलवार, 16 दिसंबर 2008


हम ने तो कोई बात निकाली नही ग़म की


सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शेहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंडे
पत्थर की तरह बे-हिस-व-बेजान सा क्यूँ है

तन्हाई की यह कौनसी मंज़िल है रफ़ीक़ो
ता हददे-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हम ने तो कोई बात निकाली नही ग़म की
वह ज़ूद-ऐ-पशीमान , पशीमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आइना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है

poet = प्रोफ़ेसर शहरयार


रफ़ीक़ो = दोस्तो
ता हददे-नज़र = नज़र की last-limit तक
बयाबान = जंगल
ज़ूद-ऐ-पशीमान = शर्मिंदगी का मारा

सोमवार, 8 दिसंबर 2008


ईद मुबारक - eid mubarak


सऊदी अरब में आज बक्र-ईद मनाई गई. भारत में ईद कल 9-दिसम्बर को होगी.
इस ब्लॉग के पढने वाले तमाम साथियों को ईद-मुबारक क़ुबूल हो.

हज के मोक़े पर कल मैदान-ऐ-अरफ़ात में मस्जिद-ऐ-नम्रा के इमाम साहब ने खुत्बा देते हुए कहा था :
इस्लाम इंसानी समाज को अमन का पैग़ाम देता है. ज़मीन पर इंसान का खून बहाना अल्लाह के नज़दीक सक़्त ना-पसंदीदा काम है. कुछ ताक़तें मुसलमान नौजवानों को दीन से भटका रही हैं. वह इन ताक़तों से ख़बरदार रहें. इस्लाम ने समाज में फ़साद फैलाने वालों को सक़्त सज़ाएं दे रखी हैं.
मुसलमानो ! अल्लाह की ना-फ़रमानी को तर्क कर के अल्लाह की ग़ुलामि को क़बूल कर लो.

अल्लाह से दुआ है के इमाम साहब का यह मशूरा वह तमाम मुसलमान नौजवान क़बूल कर लें जो असल इस्लाम से भटक कर आतंकवादी के ग़लत रास्ते पर चल पड़े हैं.
आमीन !!

रविवार, 7 दिसंबर 2008


9th-ज़िलहज : अरफ़ा का दिन


ज़िलहज , इस्लामी महीनों का 12th और आख़री महिना है. हज इसी महीने की 8 से 12 तारीख़, जुमला 5 दिनों में अंजाम पाता है. हज का दूसरा दिन यानि 9-ज़िलहज "अरफ़ात" का दिन कहलाता है. (इस साल 9-ज़िलहज, 7-Dec.-2008 को आया है.)
तमाम हाजी इस दिन अरफ़ात के मैदान में जमा होते हैं. [अरफ़ात का मैदान , मक्का मुकर्रमा से 14.4 KM (9-miles) दूर है.]

अरफ़ात के मैदान में चारों तरफ़ निशाँ लगा दिए गए हैं. क्यूँ के जो कोई हाजी 9-ज़िलहज को इस मैदान के अंदर दाख़िल ना हो पाये उसका हज नही होता. मैदान-ऐ-अरफ़ात दुआओं के क़ुबूल होने का मुक़ाम है. इसलिए तमाम हाजी इस मैदान में ज़्यादा से ज़्यादा दुआएं मांगते हैं.
9-ज़िलहज की शाम सूरज ग़ुरूब होने के बाद हाजी इस मैदान से निकलना शुरू हो जाते हैं.

जो मुसलमान हज पर नही होते वह इस दिन रोज़ा रखते हैं. क्युंके हमारे नबी करीम (सल्लल लाहू अलैहि वसल्लम) का फ़रमान है के : अरफ़ा के दिन का रोज़ा पिछले और अगले, दो साल के गुनाहों को मिटा देता है (इन-शा-अल्लाह).

रविवार, 30 नवंबर 2008


मुंबई धमाके और हमारा रवय्या ...


२०० के क़रीब हंसती खेलती मासूम जानें इस दुन्या से विदा हो गईं और हमारे एक दोस्त मुझ से पूछ रहे हैं के :
यार , तुम्हारा क्या ख़याल है, इन धमाकों के पीछे कौन हो सकता है?
क्या पूछें गे आप ? क्या हम बताएँ आप को?
क्या हमारे कुछ बताने से गई हुयी जानें वापस आ जायें गी? क्या उन तमाम दुखी लोगों को ढार्स मिल जायेगी जिन्हों ने अपने प्यारों को अपनी आंखों के सामने तड़प तड़प कर ख़तम होते देखा ??
बड़ी अजीब बात है .... सारी दुन्या में बस मासूम अवाम ही दहशत-गर्दी की जंग में , राज-नीती की रस्सा-कशी में पिसे जाते हैं.

और वह लोग जिनको हमने वोट देकर दिल्ली भेजा, राज-नीती की सोने की कुर्सियों पर बिठाया, वह रा (RAW) जिस पर हम हिन्दुस्तानियों को बड़ा नाज़ है, एतमाद है .... यह सब बस हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं??
सच कहा है हमारे बहुत ही मोहतरम ब्लॉगर साथी डॉ.सुभाष भदौरिया ने :
बैठे दिल्ली में नपुंसक साले,
देश को शर्मशार करते हैं


कुछ हैरत उन लोगों पर भी है .... जो हर जुर्म का इल्ज़ाम पाकिस्तान पर थोप कर समझते हैं के बस उनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो गई. यह तो ऐसे ही है जैसे कोई शुत्र-मुर्ग़ रेत के तूफ़ान में सर छुपा कर समझ ले के वह अब तूफ़ान से बच गया है.
पड़ोसी मुल्क को गालियाँ देकर, We-Hate-Pakistan जैसे ब्लॉग बना कर क्या हम ने वाक़ई में अपनी और औरों की जानें महफूज़ कर ली हैं ??

पाकिस्तान का हाथ हो या किसी और मुल्क का .... सवाल यह नही के कौन हमें मार रहा है, बलके सवाल यह है के जिन को हमने मुल्क और और उसके अवाम की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी सोंपी है, वह क्या कर रहे हैं??

किसी मुल्क या किसी क़ौम के ख़िलाफ़ नफ़रत का परचार कर के जवाब में गुलाब के फूल हासिल नही किये जा सकते. अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने तो अहिंसा का दर्स देते हुए कहा था के .... अगर तुम्हे कोई एक थप्पड़ मारे तो जवाब में अपना दूसरा गाल भी पेश कर दो.
मगर साहब, आज की मार-धाड़ से भरपूर हिन्दी फिल्में देखने वालों को गांधी जी का यह अज़ीम क़ौल भला क्यों याद आए?

बेशक आज हम अपना दूसरा गाल हरगिज़ पेश न करें , मगर क़ौम का इतना ही दर्द है तो हमको ख़ुद सरहद पर जाना चाहीये , घुस-पीठियों को ताक़त से रोकना चाहीये , अपना खून देकर दुन्या को बताना चाहीये के एक हिन्दुस्तानी किस कद्र दलेर होता है , किस तरह उसके नज़दीक मज़हब और जात की अहमियत नही बलके सिर्फ़ "हिन्दुस्तानी" होने की अहमियत होती है और वह Unity-in-Diversity का कितना बड़ा अहतराम करता है !!
सिर्फ़ keyboard-warrior बनना हो तो यह तो नेट के हर बच्चे बच्चे को आता है !!

बुधवार, 26 नवंबर 2008


मोहब्बत मर नही सकती ...


हज़ारों दुःख पड़ें सहना , मोहब्बत मर नही सकती
है तुम से बस यही कहना , मोहब्बत मर नही सकती

तेरा हर बार मेरे ख़त को पढ़ना और रो देना
मेरा हर बार लिख देना , मोहब्बत मर नही सकती

किया था हम ने कैम्पस की नदी पर एक हसीं वादा
भले हम को पड़े मरना , मोहब्बत मर नही सकती

जहाँ में जब तलक पंछी चहकते उड़ते फिरते हैं
है जब तक फूल का खिलना , मोहब्बत मर नही सकती

पुराने अहद को जब जिंदा करने का ख़्याल आए
मुझे बस इतना लिख देना , मोहब्बत मर नही सकती

वह तेरा हिज्र की शब् , फ़ोन रखने से ज़रा पहले
बहुत रोते हुए कहना , मोहब्बत मर नही सकती

अगर हम हसरतों की क़ब्र में ही दफ़न हो जाएँ
तो यह कुत्बों पे लिख देना , मोहब्बत मर नही सकती

पुराने राब्तों को फिर नऐ वादे की खाहिश है
ज़रा एक बार तो कहना , मोहब्बत मर नही सकती

गए लम्हात फ़ुर्सत के , कहाँ से ढूंढ कर लाऊँ
वह पहरों हाथ पर लिखना , मोहब्बत मर नही सकती

poet = वसी शाह

शनिवार, 15 नवंबर 2008


आदिल मंसूरी - Adil Mansuri


गुजराती और उर्दू के ग़ज़ल-लेखक और मुसव्विर जनाब आदिल मंसूरी 6-नवम्बर-2008 को वफ़ात पा गए. अल्लाह उनको जन्नत नसीब फ़रमाए, अमिन.
links :
Adil Mansuri dot com
आदिल मंसूरी की गुजराती ग़ज़लें
adil mansuri, death of a poet

आदिल मंसूरी की एक ग़ज़ल

कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी
परबत का सीना चीर के नदी उछल पड़ी

मुझ को अकेला छोड़ के तू तो चली गई
महसूस हो रही है मुझे अब मेरी कमी

कुर्सी, पलंग, मेज़, क़ल्म और चांदनी
तेरे बग़ैर रात हर एक शय उदास थी

सूरज के इन्तेक़ाम की ख़ूनी तरंग में
यह सुबह जाने कितने सितारों को खा गई

आती हैं उसको देखने मौजें कुशां कुशां
साहिल पे बाल खोले नहाती है चांदनी

दरया की तह में शीश नगर है बसा हुआ
रहती है इसमे एक धनक-रंग जल परी

बुधवार, 12 नवंबर 2008


कभी चाँद चमका ग़लत वक्त पर


कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िंदगी ने मुझे
मगर जो दिया, वह दिया देर से

हुआ ना कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब्-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से

कभी रुक गए राह में बे-सबब
कभी वक्त से पहले घर आई शब्
हुए बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया, मैं गया देर से

यह सब इत्तेफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वह ख़ामोशी सदा देर से

सजा दिन भी रौशन हुयी रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी, हुआ देर से

भटकती रही यूँही हर बंदगी
मिली ना कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से

poet = निदा फ़ाज़ली

शनिवार, 8 नवंबर 2008


औरत का वजूद : दुन्या में रंग


अल्लामा इक़बाल ने बिल्कुल सही कहा था के :

वजूद-ऐ-ज़न से है तस्वीर-ऐ-काइनात में रंग
(दुन्या की तस्वीर में औरत की वजह से ही रंग है)

औरत - इंसानी नस्ल को तक़्लीक़ करने की ज़मानत देती है.
औरत तो माँ भी है , बहन भी ... औरत तो बेटी भी है और बीवी भी.

औरत माँ हो तो उसके क़दमों के नीचे जन्नत होती है.
बहन हो तो मर्द की ग़ैरत होती है
बीवी हो तो दिल-ओ-जाँ का सुकून होती है
बेटी हो तो आंखों का नूर होती है

औरत - फूल का निखार , बुलबुल का तरन्नुम , नहरों की रवानी और कल्यों की महक लेकर पैदा होती है.
अगर औरत ना होती तो यह दुन्या बे-रंग और बे-रौनक़ होती.
औरत तो आँख की ठंडक है, दिल का सुरूर है, ज़ख्मों का मरहम है, दुखों का मदावा है, तन्हाई की हमदम और रफ़ीक़ है, मुसीबत में मुआविन है.

अगर औरत ना होती तो दुन्या की तस्वीर कुछ और ही होती. कोई रिश्ता ना होता, किसी से जुड़ने की कोई वजह न होती. माँ को मामता ना मिलती और रातों को जागने वाली आँखें ना होतीं. इंसान के किसी ज़ख्म के लिए कोई मरहम ना होता, दुःख दर्द की पहचान ना होती, पत्थर होते इंसान ना होता !
औरत के बग़ैर तो ज़िन्दगी एक सज़ा का नाम होती.

ज़िन्दगी के इस मैदान-ऐ-जंग में असल और फ़ैसला-कुन हक़ीक़त का एक ही नाम है : औरत !!


काइनात = विशव
नस्ल = वंश
तक़्लीक़ = पैदा करना
ग़ैरत = आत्म सम्मान
तरन्नुम = स्वर माधुर्य
रवानी = बहाव
बे-रौनक़ = उजाड़
मदावा = इलाज
मुआविन = सहायक
फ़ैसला-कुन = अंतिम निर्णय

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008


मेरा दिल भी कितना पागल है ......


**
एक दिल का दर्द है के रहा ज़िन्दगी के साथ
एक दिल का चैन था के सदा ढूंढते रहे

**
खुदा करे मेरी तरह तेरा किसी पे आए दिल
तू भी जिगर को थाम के कहता फिरे के हाऐ दिल
रोंदो ना मेरी क़ब्र को इस में दबी हैं हसरतें
रखना क़दम संभाल के देखो कुचल ना जाए दिल

**
ज़र्फ़ की बात है, काँटों की ख़लिश दिल में लिए
लोग मिलते हैं तरो-ताज़ा गुलाबों की तरह

**
फूँक डालूंगा किसी रोज़ मैं दिल की दुन्या
यह तेरा ख़त तो नही है के जला भी न सकूँ

**
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

**
यह तो मुमकिन ही नही दिल से भुला दूँ तुझको
जान भी जिस्म में आती है तेरे नाम के साथ

**
दिल की चोव्खट पे जो एक दीप जला रखा है
तेरे लौट आने का इमकान सजा रखा है

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008


दीपावली मुबारक - एक ख़ूबसूरत तस्वीर


दीपावली की मुबारकबाद
अंजुमन इस्लाम हाई स्कूल, अहमदाबाद की तालिबात
की तरफ़ से आप तमाम दोस्त अहबाब क़बूल फ़रमाएँ ।।


मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008


लाला ! दिवाली है आई !!


तमाम ब्लॉगर साथियों को दिपावली की शुभकामनऎ ।।
(माफ़ी चाहता हूँ के एक दिन देर से मुबारकबाद दे रहा हूँ)

रौशनी के त्यौहार के इस रंगीन मोक़े पर
नज़ीर अकबराबादी
(असल नाम : वली मोहम्मद, born:1735, death:1830)
की एक मशहूर नज़्म "दिवाली" याद आ रही है जो हम ने अपने बचपन में पढ़ी थी। आप भी इस नज़्म के कुछ अशार से मह्ज़ूज़ होईये गा ।।
***

हर एक मकान में जला फिर दिया दिवाली का
हर एक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समाँ भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दिवाली का

अजब बहार का है दिन बना दिवाली का

जहाँ में यारो, अजब तरह का है यह त्यौहार
किसी ने नक़्द लिया और कोई करे है उधार
खिलोने, कलियों, बताशों का गरम है बाज़ार
हर एक दुकान में चरागौं की हो रही है बहार

सभों को फ़िक्र है जा बजा दिवाली का

मिठायों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं के : लाला ! दिवाली है आई
बताशे ले कोई , बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलोने वालों की उन से ज़्यादा बन आई

गोया उन्ही के वां राज आ गया दिवाली का

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008


माँ - कोई तुझ सा कहाँ ?!


मौत की आगो़श में जब थक के सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर थोड़ा सुकूं पाती है माँ

रूह के रिश्तों की यह गहराइयां तो देखिये
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ

प्यार कहते हैं किसे और मामता क्या चीज़ है?
कोई उन बच्चों से पूछे जिनकी मर जाती है माँ

जिंदगानी के सफ़र में , गर्दिशों की धूप में
जब कोई साया नही मिलता तो याद आती है माँ

कब ज़रूरत हो मेरी बच्चे को , इतना सोच कर
जागती रहती हैं आँखें और सो जाती है माँ

भूक से मजबूर हो कर मेहमां के सामने
मांगते हैं बच्चे जब रोटी तो शर्माती है माँ

जब खिलोने को मचलता है कोई गोर्बत का फूल
आंसूओं के साज़ पर बच्चे को बहलाती है माँ

लौट कर वापस सफ़र से जब भी घर आते हैं हम
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ

ऐसा लगता है जैसे आ गए फ़िरदौस में
खींच कर बाहों में जब सीने से लिपटाती है माँ

देर हो जाती है घर आने में अक्सर जब कभी
रेत पर मछली हो जैसे ऐसे घबराती है माँ

शुक्र हो ही नही सकता कभी उसका अदा
मरते मरते भी दुआ जीने की दिये जाती है माँ

( शाएरा = समीरा सुल्ताना )

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008


आज की dictionary


शराफ़त = एक ऐनक जिसे अंधे लगाते हैं
बहादुर = आग को पानी समझ कर पी जाने वाला कम इल्म
नेकी = जिसे पहले ज़माने में लोग दर्या में दाल देते थे आजकल मंडी में for sale कह कर बेच देते हैं
सच्चाई = एक चोर जो डर के मारे बाहर नही निकलता
झूट = एक फल जो देखने में हसीं है खाने में लज़ीज़ है लेकिन जिसे हज़म करना मुश्किल है

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008


वह क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नही होता


बी बी सी - हिन्दी ने यहाँ एक ख़बर दी है के आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद ज़िले के एक गाँव में कुछ अज्ञात लोगों ने एक ही घर के छह लोगों को ज़िंदा जला दिया.

हमारा मानना है के दहशत-गर्दी का कोई मज़हब नही होता. हर मज़हब में बे-वजह का क़त्ल एक बहुत बड़ा जुर्म है. क़ुरान शरीफ़ में तो साफ़ लिखा है के :
जिस ने एक इंसान को क़त्ल किया उसने सारी इंसानियत को क़त्ल किया !

लेकिन बड़ा दुःख इस बात का होता है के हमारे हिन्दुस्तानी media को ........
नानो कार और गुजरात याद रहता है
अमिताभ बच्चन की बीमारी बड़ा परेशान करती है
राखी सावंत के आंसू दिखायी ज़रूर देते हैं
एक मासूम बच्चे को बोर-वेल से निकालने की रन्निंग कमेंट्री देना याद रहता है
बस याद नही रहता तो .....................

क्या कीजिये साहेब, किस से शिकवा कीजिये? खून-ऐ-मुस्लिम इतना ही सस्ता है आज के भारत में .....

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वह क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नही होता !!

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008


ईद-उल-फ़ित्र मुबारक !!


अस्सलाम-ओ-अलैकुम
तमाम ब्लॉगर साथियों और दोस्तों को ईद-उल-फ़ित्र की पुर-खुलूस मुबारकबाद क़ुबूल हो.



महफ़िलें यूँ तो रोज़ सजती हैं
महफ़िल-ऐ-ईद तेरी बात है और




हर तरफ़ गुल खिलें मसर्रत के
आप आयें तो ईद हो जाए

ईद आई है कई रंग जुलू में ले कर
इन में एक रंग तेरी याद का भी है अए दोस्त

सोमवार, 15 सितंबर 2008


आप की याद आती रही ...


मक़्दूम मोहिउद्दीन की एक मशहूर ग़ज़ल पेश-ऐ-खिदमत है

आप की याद आती रही रात भर
चश्म-ऐ-नम मुस्कुराती रही रात भर

रात भर दर्द की शमा जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर

बांसुरी की सुरेली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर

याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चांदनी जगमगाती रही रात भर

कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर


चश्म-ऐ-नम = आंसू भरी आँख

शनिवार, 6 सितंबर 2008


एक ज़रदारी को देखा तो ऐसा लगा


आज की ताज़ा ख़बर यह है के Asif Zardari पाकिस्तान के सद्र मुन्तख़्ब हो गए हैं
सुनने में आया है के पाकिस्तानियों की एक बड़ी तादाद ज़रदारी के ख़िलाफ़ है
एक पाकिस्तानी साहेब ने अपने उर्दू ब्लॉग पर हिन्दी फ़िल्म "1942 A Love Story" के एक मशहूर गाने की parody कुछ यूँ लिख रखी है
आप भी मज़ा लीजिये ....

एक ज़रदारी को देखा तो ऐसा लगा
जैसे खाना ख़राब
जैसे टोटल (total) अज़ाब
जैसे आदि फ़कीर
जैसे मुर्दा ज़मीर
जैसे नासूर हो कोई रिसता हुआ ...

एक ज़रदारी को देखा तो ऐसा लगा
जैसे बिजली की तार
जैसे ख़ंजर की धार
जैसे दोज़ख़ की आग
जैसे ज़हरीला नाग
जैसे कुत्ते पे हो कव्वा बैठा हुआ

एक ज़रदारी को देखा तो ऐसा लगा
जैसे गर्मी की धूप
जैसे शैतान का रूप
जैसे बे-वर्दी डकैत
जैसे मौलवी का पेट
जैसे डाकू कोई गन (gun) दिखाता हुआ
एक ज़रदारी को देखा तो ऐसा लगा

गुरुवार, 4 सितंबर 2008


कुछ दिन तो बसो मेरी आंखों में


कुछ दिन तो बसो मेरी आंखों में
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या

कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को
फिर ज़ख्म अगर महकाओ तो क्या

एक आइना था सो टूट गया
अब ख़ुद से अगर शरमाओ तो क्या

तुम आस बंधाने वाले थे
अब तुम भी हमें ठुकराओ तो क्या

दुन्या भी वही और तुम भी वही
फिर तुम से आस लगाओ तो क्या

मैं तनहा था मैं तनहा हूँ
तुम आओ तो क्या ना आओ तो क्या

जब देखने वाला कोई नहीं
बुझ जाओ तो क्या गह्नाओ तो क्या

एक वहम है यह दुन्या इस में
कुछ खोओ तो क्या और पाओ तो क्या


- ऊबैदुल्लाह अलीम

बुधवार, 3 सितंबर 2008


कुछ फूल मैंने चुने ...


* मोहब्बत ऐसा दर्या है के बारिश रूठ भी जाए तो पानी कम नहीं होता

* कड़वी बात पत्थर की तरह होती है जो हर चीज़ को ज़ख्मी या ख़राब कर देती है , जबके मीठी बात उस चश्मे की तरह होती है जिस की तरफ़ इंसान तो इंसान जानवर भी दौड़े चले जाते हैं

* ख्वाहिश को दिल में जगह देना ज़ख्म को दिल में जगह देने के बराबर है क्यूंकि अगर ख्वाहिश पूरी हो जाए तो दिल फूल बन जाता है और अगर ख्वाहिश पूरी ना हो तो ज़ख्म बन जाता है

* इस दुन्या में दो लोग ही आप को अच्छी तरह से जानते हैं , एक वह जो आप से मोहब्बत करते हैं और दूसरे वह जो सब से ज़यादा आप से नफ़रत करते हैं

मंगलवार, 2 सितंबर 2008


मेरे जिस्म मेरी रूह को अच्छा कर दे


इस से पहले के यह दुन्या मुझे रुसवा कर दे
तू मेरे जिस्म मेरी रूह को अच्छा कर दे

यह जो हालत है मेरी मैं ने बनाई है मगर
जैसा तू चाहता है अब मुझे वैसा कर दे

मेरे हर फ़ैस्ले में तेरी रज़ा शामिल हो
जो तेरा हुक्म हो वह मेरा इरादा कर दे

मुझ को वह इल्म सिखा दे जिस से उजाला फैले
मुझ को वह इस्म पढ़ा दे जो मुझे जिंदा कर दे

ज़ाये होने से बचा ले मेरे महबूब मुझे
यह ना हो वक़्त मुझे खेल तमाशा कर दे

मैं मुसाफ़िर हूँ सौ रस्ते मुझे रास आए हैं
मेरी मंजिल को मेरे वास्ते रस्ता कर दे

इस से पहले के यह दुन्या मुझे रुसवा कर दे
तू मेरे जिस्म मेरी रूह को अच्छा कर दे

- अल्लामा इक़बाल

ज़ाये = waste

सोमवार, 1 सितंबर 2008


रमज़ान करीम मुबारक


अस्सलाम-ओ-अलैकुम।
तमाम मुसलमान भाई बहनों को रमज़ान करीम मुबारक हो।
अल्लाह से दुआ है के हम तमाम को इस माह-ऐ-मुबारक में गुनाहों से बचाए और तमाम इबादतों को बजा लाने की तौफ़ीक़ दे , आमीन।



शनिवार, 30 अगस्त 2008


दो आर्ज़ू में कट गए , दो इंतज़ार में


उर्दू के मशहूर शाऐर बहादुर शाह ज़फर का एक बहुत मशहूर शेर है
उम्र-ऐ-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन
दो आर्ज़ू में कट गए , दो इंतज़ार में


मिज़ाहिया शाऐर पापुलर मेरठी ने इसको मिज़ाहिया अंदाज़ में कुछ यूँ लिखा है :

महबूब वादा कर के भी आया न दोस्तो
क्या क्या किया ना हम ने यहाँ उसके प्यार में
मुर्गे चुरा के लाये थे जो चार पापुलर
दो आर्ज़ू में कट गए , दो इंतज़ार में


उम्र-ऐ-दराज़ = long life
पापुलर मेरठी = Popular meerathi (an URDU poet)

मंगलवार, 26 अगस्त 2008


उर्दू के मशहूर शाएर फ़राज़ नहीं रहे


जीवन ज़हर भरा सागर , कब तक अमृत घोलेंगे
नींद तो क्या आएगी फ़राज़ , मौत आए तो सो लेंगे

उर्दू के मशहूर पाकिस्तानी शाएर अहमद फ़राज़ कल सोमवार 25-8-2008 की रात इस्लामाबाद में वफ़ात पा गऐ। अल्लाह उन को जन्नत नसीब करे। आमीन।

उर्दू शाएरी का एक बेहतरीन दौर ख़तम हो गया। अब फ़राज़ जी हम को उसी तरह किताबों में मिलें गे जैसा ख़ुद उन्हों ने कहा था :
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

फ़राज़ साहेब की यह पूरी ग़ज़ल उनको ख़राज-ऐ-अक़ीदत के तौर पर पेश है .........


अब के हम बिछडे तो शाएद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें


ढूंढ उजडे हुए लोगौं में वफ़ा के मोती
यह ख़ज़ाने तुझे मुमकिन हैं ख़राबों में मिलें

ग़म-ऐ-दुन्या भी ग़म-ऐ-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

तू ख़ुदा है ना मेरा इश्क फरिश्तों जैसा
दोनों इंसान हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

आज हम दार पे खींचे गऐ जिन बातों पर
क्या अजब कल वह ज़माने को निसाबों में मिलें

अब ना वह मैं हूँ ना तू है ना वह माज़ी है फ़राज़
जैसे दो साये तमन्ना के , सराबों में मिलें

शनिवार, 23 अगस्त 2008


दिल ... दिल ... दिल ...


**
ख़ुदा करे मेरी तरह तेरा किसी पे आए दिल
तू भी जिगर को थाम के कहता फिरे के हाऐ दिल
रोंदो ना मेरी क़बर को इस में दबी हैं हसरतें
रखना क़दम संभाल के देखो कुचल ना जाए दिल

*
यह कैसे ख्वाब से जागी हैं आँखें
किसी मंज़र पे दिल जमता नही है

*
यह तो मुमकिन ही नही दिल से भुला दूँ तुझ को
जान भी जिस्म में आती है तेरे नाम के साथ

*
गर बिछड़ना पड़ा हम से तो जियोगे कैसे
दिल की गेह्रायियौं से इतना हमें चाहा ना करो

**
दिल की चोखट पे जो एक दीप जला रखा है
तेरे लौट आने का इमकान सजा रखा है
साँस तक भी नही लेते हैं तुझे सोचते वक़्त
हम ने इस काम को भी कल पे उठा रखा है

रोंदना = to crush
इमकान = imaginable

शनिवार, 16 अगस्त 2008


मूंछें हो तो नथू लाल जैसी .....


बरसों पहले अमिताभ बच्चन की फ़िल्म "शराबी" जो आई थी उसका एक मशहूर डैलोग था
मूंछें हो तो नथू लाल जैसी हों वरना नो हों

अब मूंछों पर कुछ ज़रूरी बातें पढ़िये :

- मूंछें आप के बुरे वक़्त की साथी हैं , आप किसी की गर्दन नही मोड़ सकते लेकिन अपनी मूंछें ज़रूर मोड़ सकते हैं

- अगर आपको बाग़्बानी का शौक़ हो तो मूंछों की परवरिश और उन्हें काट छांट कर अपना शौक़ पूरा करें

- मूंछें तराशने वाला जेब तराश की तरह होता है ... ज़रा सी भी ग़लती हो तो दोनों किसी को मुः दिखाने के क़ाबिल नही रहते

- मूंछें तराशना एक मुश्किल फ़न है , आदमी सारी ज़िन्दगी यह काम करने के बाद भी इसमे माहिर नही होता अलबत्ता वह ठंडे मिज़ाज का ज़रूर बन जाता है क्युंके मूंछें तराशना जल्दबाज़ और तेज़ मिज़ाज आदमी के बस का रोग नही है

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008


१५-अगस्त ... नेमत-ऐ-आज़ादी ... मेरी दुआ


१५-अगस्त
आज़ादी भी कितनी बड़ी नेमत है !

आज बाहर की दुन्या तो बड़ी हसीन है , खुशगवार है , रोमानी है , रंग बिरंगी है , हवाओं में ताज़गी सी है ...
मगर ऍ काश ...
हमारे अन्दर का मौसम भी दिलरुबा होता , उतना ही महकता होता ...
आज मिटटी का रंग भी बड़ा लाल लाल सा नज़र आता है , रूह कहती है के यह मिटटी उन जियालों के खून की याद में रो रही है जिन्हों ने इस प्यारे वतन को आजाद कराया , अपने क़ीमती खून की क़ुर्बानियाँ दीं , शाएद सोचा होगा के उनके मरने के बाद ही सही मगर एक नई सुबह तो तुलू होगी !

आह ... के वह सुबह तुलू हुयी भी तो कितने मुख्तसर वक़्फ़े के लिए?
प्यारे वतन की धरती का रंग आज भी उतना ही लाल है।
मज़हब , सियासत , जुबां , इलाका , ज़ात पात और फ़िरक़े ... इन सब मोतियौं को जमा कर के खूबसूरत जगमगाती माला बनायी थी मोमारान-ऐ-वतन ने। मालूम नहीं इतने सालों में किस की नज़र लग गई ?

तस्बीह की डोर टूट गई है , दाने इधर उधर बिखर गए हैं ...
रोने की आवाजें , दहशत ज़दा आवाजें , धमाकों की आवाजें , चीखना चिल्लाना , तड़पना फड़कना , फ़िज़ा में बारूद की बू ... परिंदे उदास हैं , उनकी चोंच से शाक़-ऐ-जैतून छीन ली गई है ।

फिर भी ...
हां फिर भी ... हर साल १५-अगस्त की सुबह माहौल बदल जाता है , हसीं-वो-खुशगवार हो जाता है , चारों तरफ़ जैसे होली के दमकते रंग बिखर जाते हैं , आज़ादी के दिल-आवीज़ नग़्मों की लहरें सुनाई देती हैं , फिजायें झूम झूम उठती हैं ...

ऍ अल्लाह ! ऍ मेरे रब !
काश के यह दिन , यह खूबसूरत दिन , सारे साल पर फैल जाए , हम नेमत-ऐ-आज़ादी की हक़ीक़त को जान लें पहचान लें , इसकी हिफ़ाज़त हम सब ने मिलकर करनी है .... आपस में इन्ही मोहब्बतों , चाहतों , रिश्तों नातों को परवान चढ़ाना है जिसकी ख़ातिर हम ने आज़ादी जैसी यह नेमत हासिल की थी ...
काश के यह बात हम सब की समझ में आ जाए ... काश के .....

ऍ ख़ुदा ! ढलकते हुए एक आंसू की इस दुआ को क़बूल फरमा ले ... आमीन !!

अपने प्यारे वतन हिन्दुस्तान के तमाम देश वासियौं को ...
A happy Independance day !!


तुलू = rise
मुख्तसर वक़्फ़े = a short time
मोमारान-ऐ-वतन = वतन को बनाने वाले
शाक़-ऐ-जैतून = a branch of olive (for peace)
दिल-आवीज़ = दिल को छूने वाले
परवान चढ़ाना = to grow positively

मंगलवार, 12 अगस्त 2008


मोहब्बतें ...


कुछ मोहब्बतें फूलों की तरह होती हैं , ख़ामोश ख़ामोश लेकिन इन की महक इन के होने की पहचान होती है ...
कुछ मोहब्बतें लपकते शोलों की तरह होती हैं के इन में जलने वाले ख़ुद भी जलते हैं और उनके क़रीब रहने वाले भी यह तपिश महसूस करते हैं तो फिर इज़हार की ज़रूरत भी कहाँ रहती है ?
कुछ मोहब्बतों में नदी की सी रवानी होती है ...
और कुछ में मैदानी दर्याऔं जैसी तुग़्यानी ...
कुछ टूटने वाले तारों की तरह होती हैं यानी अनं फ़नं चमक कर फ़ना हो जाने वाली मोहब्बतें ...

कुछ मोहब्बतें क़ुत्बि सितारों की तरह पायेदार और मुस्तक़ल राह दिखाने वाली होती हैं ...
कुछ अंधेरों में रौशनी बन कर जगमगाने वाली मोहब्बतें ...
कुछ आबशारों की तरह होती हैं के जब निछावर होती हैं तो शोर मचाती और दनदनाती हैं ...
और कुछ दूर पर्बतों के दामन से फूटने वाले झरनों की तरह ठंडी मीठी, धीमी धीमी शफ़्फ़ाफ़ मोहब्बतें जो जीने का अज़्म अता करती हैं ...!!

तपिश = गर्मी
रवानी = smooth flowing
तुग़्यानी = excess flowing , flood
अनं फ़नं = फ़ौरन
क़ुत्बि सितारा = polaris
पायेदार और मुस्तक़ल = मज़्बूत और हमेशा का
आबशार = water-fall
शफ़्फ़ाफ़ = bright & shining
अज़्म = aim

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008


तेरी तस्वीर पे लब रख दिये ...


परवीन शाकिर के क़ल्म से .......

जाने कब तक तेरी तस्वीर निगाहों में रही
हो गई रात तेरे अक्स को तकते तकते
मैंने फिर तेरे तसव्वुर के किसी लम्हे में
तेरी तस्वीर पे लब रख दिये अहिस्ता से

अक्स = image , photograph
तकते तकते = देखते देखते

तसव्वुर = imagination
लब = lips

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008


क्या यही होती है शाम-ऐ-इन्तेज़ार


कैफ़ भोपाली की एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल पेश-ऐ-खिदमत है।।

हाऐ लोगौं की क्रम फ़र्माईयाँ
तोहमतें , बदनामियाँ , रुस्वाईयाँ

जिंदगी शाएद इसी का नाम है
दूरियां , मजबूरियाँ , तन्हाइयाँ

क्या ज़माने में यूँही कटती है रात
करवटें , बे-ताबियाँ , अंगडा़इयाँ

क्या यही होती है शाम-ऐ-इन्तेज़ार
आहटें , घबराहटें , परछाइयाँ

मेरे दिल की धड़कनों में ढ़ल गयीं
चूड़ियाँ , मोसीक़ियाँ , शेह-नाइ-याँ

एक पैकर में सिमट कर रह गयीं
खूबियाँ , ज़ेबाईयाँ , रेए-नाईयाँ

उनसे मिलकर और भी कुछ बढ़ गयीं
उलझनें , फिक्रें , क़यास-आराईयाँ

चंद लफ़्जौं के सिवा कुछ भी नहीं
नेकियाँ , कुर्बानियां , सच्चाईयाँ

कैफ़ , पैदा कर समुन्दर की तरह
वुस-अतें , खा़मूशियाँ , गहराईयाँ

क्रम फ़र्माईयाँ = महेरबानियाँ (plural form)
तोहमत = इल्ज़ाम लगाना
रुस्वाई = बे-इज़्ज़ती
मोसीक़ियाँ = music (plural form)
पैकर = रूप, सूरत
खूबियाँ = अच्छाईयाँ
ज़ेबाईयाँ = elegancy (plural form)
रेए-नाईयाँ = ख़ूबसूरती (plural form)
क़यास-आराईयाँ = ख़याली बातें (plural form)
वुस-अतें = बड़ाई , large (plural form)

गुरुवार, 17 जुलाई 2008


चाँद का अब्बा ..... !


चाँद का अब्बा

चाँद रात आए तो सब देखें हिलाल-ऐ-ईद
एक हमारा ही नसीबाँ , हड्डियां तुड़वा गया
छत पर थे हम चाँद के नज़ारे में खोये खोये
बस अचानक चाँद का अब्बा वहां आ गया

marriage-certificate expiration!

एक दिन बीवी ने शौहर से कहा क्या बात है
इस क़द्र गुम सुम बुझे पहले कभी देखा नहीं
अक़्द-नामा उस के आगे कर के शौहर ने कहा
कब यह होगा एक्स्पाएर (expire) यह कहीं लिखा नहीं

"चंदा"

कल एक चाँद सी लड़की को देखा तो हो गया दिल बे-क़ाबू
कह दिया सामने जा के प्यार से मैं ने उसको "चंदा"
फ़ौरन दस रुपे नोट थमा के आगे से वह बोली
यह तो बतला दो किस मस्जिद का मांग रहे हो चंदा ?


हिलाल-ऐ-ईद = ईद का चाँद
अक़्द-नामा = marriage-certificate

बुधवार, 16 जुलाई 2008


बीवियों की दहशत


कॉलेज के ज़माने में एक जोक हम साथियौं के बीच बड़ा मशहूर था, शाएद आप को भी मालूम हो.
एक मियाँ अपनी बीवी से बोले :
अंग्रेज़ी के 3 W's में कभी यकीं नहीं करना चाहिए
Wealth (दौलत), Weather (मौसम) और Woman (औरत) .....
अभी मियाँ ने इतना ही कहा था के आख़री लफ्ज़ सुनकर बीवी ग़ुस्से से उनकी तरफ़ बढ़ी, मियाँ ने जल्दी से गाल पर हाथ रख कर कहा : आगे भी तो सुनो ....
अगर आप अमेरिका में हूँ तो !!

पिछले दिनों पाकिस्तान के एक बहुत मशहूर लेखक "मुस्तंसर हुसैन तारढ़" के एक मज़मून में एक मज़े का पैराग्राफ पढने को मिला, ज़रा आप भी पढ़ें .....

नाश्ते की मेज़ पर अख़बार खोला तो अजीब हौलनाक खबरें पढने को मिलीं, मस्लन बीवियों से मार खाने वाले. पाकिस्तान में हर साल ढाई लाख मर्द बीवियों के तमांचे खाते हैं और पाकिस्तानी बीवियां शौहरों पर खोलता हुआ चाऐ का पानी फ़ेंक देती हैं, नोकदार जूतीओं से ज़ख्मी होने वाले शौहरों को कई रोज़ बिस्तर-ऐ-अलालत पर रहना पड़ता है. बीवियों के नाक़ाबिल-ऐ-बर्दाश्त मज़ालिम को पढ़ कर मेरे तो रोंगटे खड़े हो गऐ, गला खुश्क हो गया, बदन लरज़ने लगा.
फिर मैं उसी अख़बार को दुबारा पढने लगा ..... मालूम हुआ कि यह ज़ुल्म कि दास्तानें तो अमेरिका कि हैं .... और मैं ज़ाती तजुर्बात कि दहशत कि वजह से अमेरिका कि बजाये पाकिस्तान और पाकिस्तानी बीवियां पढता गया !


जोक = joke
हौलनाक = ख़तरनाक
बिस्तर-ऐ-अलालत = मरीज़ का बिस्तर
मज़ालिम = बहुत ज़ुल्म

मंगलवार, 15 जुलाई 2008


जिसे चाहा नहीं था...


एतेमाद सिद्दिक़ि (Etemaad Siddiqui, اعتماد صدیقی) हैदराबाद के एक बहुत अच्छे शाएर थे। सऊदी अर्ब में अपने जॉब के 20 साल गुज़ारने के बाद वह हैदराबाद लौट गये थे। अभी कुछ साल पहले हैदराबाद में उनका इन्तेक़ाल हो गया। इन्तेक़ाल से साल भर पहले उनकी शाएरी की पहली किताब रिलीज़ (release) हुयी थी , जिसका नाम है : रेत का दरया
रेत का दरया से एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल पेश-ऐ-खिदमत है।।


***

जिसे चाहा नहीं था वह मुक़द्दर बन गया अपना
कहाँ बुन्याद रखी थी कहाँ घर बन गया अपना

लिपट कर तुन्द मौजौं से बड़ी आसूदगी पायी
ज़रा साहिल से क्या निकले समुन्दर बन गया अपना

कोई मंज़र हमारी आँख को अब नम नहीं करता
होए क्या हादसे जो दिल ही पत्थर बन गया अपना

हिजूम-ऐ-शेहर में देखा तो हम ही हम नज़र आए
बनाया नक़्श जब उसका तो पैकर बन गया अपना

चले थे एतेमाद आसाऐषों की आर्ज़ु लेकर
ना जाने कौन्सा सेहरा मुक़द्दर बन गया अपना


तुन्द = severe , fierce
मौजौं = waves
आसूदगी = ease, conveniency
हिजूम-ऐ-शेहर = city public, a crowd in a city
नक़्श = arabesque
पैकर = रूप, सूरत
आसाऐषों = easiness, convenience
सेहरा = desert

रविवार, 13 जुलाई 2008


खुश आमदीद - स्वागतम - वेल्कम


उर्दू है जिस का नाम हमी जानते हैं दाग़
सारे जहाँ में धूम हमारी जुबां की है

हम बुनयादी तौर पर उर्दू दाँ हैं और उर्दू को उसके अस्ल रस्म-उल-ख़त (लिपि) में लिखने के क़ाएल हैं। उर्दू की अस्ल लिपि फ़ारसी है जो कि दाएं [right] से बाएँ [left] तरफ़ लिखी जाती है। हम अपना अस्ल उर्दू ब्लॉग यहाँ लिखा करते हैं।

उर्दू शेर-ओ-अदब से हमारी गहरी दिलचस्पी को देखते हुये हमारे कुछ दोस्तों ने राए दी है कि देवनागरी लिपि में भी हम अपना उर्दू ब्लॉग शुरू करें ताकि देवनागरी लिपि से वाक़िफ़ शाएकीं-ऐ-शेर-ओ-अदब का एक वसी हल्का [vast group], माज़ि [past] और हाल [present] के कलाम-ऐ-सुख़न से लुत्फ़ अन्दोज़ हो सकें।
यह ब्लॉग हमारे मुख्लिस दोस्तों कि उसी राए का नतीजा है ॥

उम्मीद कि उर्दू शेर-ओ-अदब के दिल्दादह इस ब्लॉग को पज़ीराई बख्शें गे। शुक्रिया ॥

नही खेल अए दाग़ यारों से कह दो
के आती है उर्दू जुबां आते आते ।
( दाग़ )

शहद-ओ-शक्र से शीरीं उर्दू जुबां हमारी
होती है जिसकी बोली मीठी जुबां हमारी
( हाली )

गैसुये उर्दू अभी मिन्नत पजीर-ऐ-शाना है
शमा यह सौदाई दिल सोज़ी-ऐ-परवाना है
( इकबाल )