मौत की आगो़श में जब थक के सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर थोड़ा सुकूं पाती है माँ
रूह के रिश्तों की यह गहराइयां तो देखिये
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ
प्यार कहते हैं किसे और मामता क्या चीज़ है?
कोई उन बच्चों से पूछे जिनकी मर जाती है माँ
जिंदगानी के सफ़र में , गर्दिशों की धूप में
जब कोई साया नही मिलता तो याद आती है माँ
कब ज़रूरत हो मेरी बच्चे को , इतना सोच कर
जागती रहती हैं आँखें और सो जाती है माँ
भूक से मजबूर हो कर मेहमां के सामने
मांगते हैं बच्चे जब रोटी तो शर्माती है माँ
जब खिलोने को मचलता है कोई गोर्बत का फूल
आंसूओं के साज़ पर बच्चे को बहलाती है माँ
लौट कर वापस सफ़र से जब भी घर आते हैं हम
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ
ऐसा लगता है जैसे आ गए फ़िरदौस में
खींच कर बाहों में जब सीने से लिपटाती है माँ
देर हो जाती है घर आने में अक्सर जब कभी
रेत पर मछली हो जैसे ऐसे घबराती है माँ
शुक्र हो ही नही सकता कभी उसका अदा
मरते मरते भी दुआ जीने की दिये जाती है माँ
( शाएरा = समीरा सुल्ताना )
गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008
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4 टिप्पणियां:
Bahut Sunder.
मौत की आगो़श में जब थक के सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर थोड़ा सुकूं पाती है माँ
" ankhon ko nam or dil ko kuch rula sa gyee... ye lines" ek sach...
Regards
शुक्र हो ही नही सकता कभी उसका अदा
मरते मरते भी दुआ जीने की दिये जाती है माँ
बहुत ही सुंदर लिखा है आप ने मां पर बिलकुल सच, हां मां ऎसी ही तो होती है
धन्यवाद
शुक्रिया हैदराबादी साहब..
अच्छा लगा...आप तमाशबीनों की भीड़ में से नहीं हैं.
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