शनिवार, 2 जनवरी 2010


स्‍वागत 2010




नया साल आया है
वीरान सुबह के नीले आसमाँ से उभरता
ठिठरती खमुशी में बर्फ़ीली सीटी बजाता
दबे पाऊँ आया
ठंडी शामों की खमुशियाँ
उसके क़दमों की आहट समेटे
रास्तों में, साएबानों में सिसक रही हैं
निकल आती है शब् को दरीचों की छिदों से
पुरजोश झोंकों की बेतहाशा ठंडक
ठन्डे पानियों के परिंदे
किनारे पर खड़े पेड़ों की नमनाक शाखों की तरफ उड़े जा रहे हैं
आंगनों में , छतों पर खड़े लोग
धड़कते दिलों में हज़ारों खाहिशों की शमें जलाए
दबे पाऊँ आते हुए साल को देखते हैं !!