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मेरी चाहत की बहुत लम्बी सज़ा दो मुझ को
कर्ब-ऐ-तन्हाई में जीने की सज़ा दो मुझ को
फ़न तुम्हारा तो किसी और से मंसूब हुआ
कोई मेरी ही ग़ज़ल आके सूना दो मुझ को
हाल बे-हाल है, तारीक है मुस्तक़बिल भी
बन पड़े तुम से तो माज़ी मेरा ला दो मुझ को
आख़री शमा हूँ मैं बज़्म-ऐ-वफ़ा की लोगो
चाहे जलने दो मुझे, चाहे बुझा दो मुझ को
ख़ुद को रख कर मैं कहीं भूल गई हूँ शाएद
तुम मेरी ज़ात से एक बार मिला दो मुझ को
poetess : निकहत इफ़्तेख़ार
कर्ब-ऐ-तन्हाई = तन्हाई का दर्द
फ़न = art / poetry
मंसूब = attached
तारीक = dark
मुस्तक़बिल = future
माज़ी = past
बज़्म-ऐ-वफ़ा = वफ़ा की महफ़िल
रविवार, 22 फ़रवरी 2009
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