रविवार, 30 नवंबर 2008


मुंबई धमाके और हमारा रवय्या ...


२०० के क़रीब हंसती खेलती मासूम जानें इस दुन्या से विदा हो गईं और हमारे एक दोस्त मुझ से पूछ रहे हैं के :
यार , तुम्हारा क्या ख़याल है, इन धमाकों के पीछे कौन हो सकता है?
क्या पूछें गे आप ? क्या हम बताएँ आप को?
क्या हमारे कुछ बताने से गई हुयी जानें वापस आ जायें गी? क्या उन तमाम दुखी लोगों को ढार्स मिल जायेगी जिन्हों ने अपने प्यारों को अपनी आंखों के सामने तड़प तड़प कर ख़तम होते देखा ??
बड़ी अजीब बात है .... सारी दुन्या में बस मासूम अवाम ही दहशत-गर्दी की जंग में , राज-नीती की रस्सा-कशी में पिसे जाते हैं.

और वह लोग जिनको हमने वोट देकर दिल्ली भेजा, राज-नीती की सोने की कुर्सियों पर बिठाया, वह रा (RAW) जिस पर हम हिन्दुस्तानियों को बड़ा नाज़ है, एतमाद है .... यह सब बस हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं??
सच कहा है हमारे बहुत ही मोहतरम ब्लॉगर साथी डॉ.सुभाष भदौरिया ने :
बैठे दिल्ली में नपुंसक साले,
देश को शर्मशार करते हैं


कुछ हैरत उन लोगों पर भी है .... जो हर जुर्म का इल्ज़ाम पाकिस्तान पर थोप कर समझते हैं के बस उनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो गई. यह तो ऐसे ही है जैसे कोई शुत्र-मुर्ग़ रेत के तूफ़ान में सर छुपा कर समझ ले के वह अब तूफ़ान से बच गया है.
पड़ोसी मुल्क को गालियाँ देकर, We-Hate-Pakistan जैसे ब्लॉग बना कर क्या हम ने वाक़ई में अपनी और औरों की जानें महफूज़ कर ली हैं ??

पाकिस्तान का हाथ हो या किसी और मुल्क का .... सवाल यह नही के कौन हमें मार रहा है, बलके सवाल यह है के जिन को हमने मुल्क और और उसके अवाम की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी सोंपी है, वह क्या कर रहे हैं??

किसी मुल्क या किसी क़ौम के ख़िलाफ़ नफ़रत का परचार कर के जवाब में गुलाब के फूल हासिल नही किये जा सकते. अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने तो अहिंसा का दर्स देते हुए कहा था के .... अगर तुम्हे कोई एक थप्पड़ मारे तो जवाब में अपना दूसरा गाल भी पेश कर दो.
मगर साहब, आज की मार-धाड़ से भरपूर हिन्दी फिल्में देखने वालों को गांधी जी का यह अज़ीम क़ौल भला क्यों याद आए?

बेशक आज हम अपना दूसरा गाल हरगिज़ पेश न करें , मगर क़ौम का इतना ही दर्द है तो हमको ख़ुद सरहद पर जाना चाहीये , घुस-पीठियों को ताक़त से रोकना चाहीये , अपना खून देकर दुन्या को बताना चाहीये के एक हिन्दुस्तानी किस कद्र दलेर होता है , किस तरह उसके नज़दीक मज़हब और जात की अहमियत नही बलके सिर्फ़ "हिन्दुस्तानी" होने की अहमियत होती है और वह Unity-in-Diversity का कितना बड़ा अहतराम करता है !!
सिर्फ़ keyboard-warrior बनना हो तो यह तो नेट के हर बच्चे बच्चे को आता है !!

बुधवार, 26 नवंबर 2008


मोहब्बत मर नही सकती ...


हज़ारों दुःख पड़ें सहना , मोहब्बत मर नही सकती
है तुम से बस यही कहना , मोहब्बत मर नही सकती

तेरा हर बार मेरे ख़त को पढ़ना और रो देना
मेरा हर बार लिख देना , मोहब्बत मर नही सकती

किया था हम ने कैम्पस की नदी पर एक हसीं वादा
भले हम को पड़े मरना , मोहब्बत मर नही सकती

जहाँ में जब तलक पंछी चहकते उड़ते फिरते हैं
है जब तक फूल का खिलना , मोहब्बत मर नही सकती

पुराने अहद को जब जिंदा करने का ख़्याल आए
मुझे बस इतना लिख देना , मोहब्बत मर नही सकती

वह तेरा हिज्र की शब् , फ़ोन रखने से ज़रा पहले
बहुत रोते हुए कहना , मोहब्बत मर नही सकती

अगर हम हसरतों की क़ब्र में ही दफ़न हो जाएँ
तो यह कुत्बों पे लिख देना , मोहब्बत मर नही सकती

पुराने राब्तों को फिर नऐ वादे की खाहिश है
ज़रा एक बार तो कहना , मोहब्बत मर नही सकती

गए लम्हात फ़ुर्सत के , कहाँ से ढूंढ कर लाऊँ
वह पहरों हाथ पर लिखना , मोहब्बत मर नही सकती

poet = वसी शाह

शनिवार, 15 नवंबर 2008


आदिल मंसूरी - Adil Mansuri


गुजराती और उर्दू के ग़ज़ल-लेखक और मुसव्विर जनाब आदिल मंसूरी 6-नवम्बर-2008 को वफ़ात पा गए. अल्लाह उनको जन्नत नसीब फ़रमाए, अमिन.
links :
Adil Mansuri dot com
आदिल मंसूरी की गुजराती ग़ज़लें
adil mansuri, death of a poet

आदिल मंसूरी की एक ग़ज़ल

कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी
परबत का सीना चीर के नदी उछल पड़ी

मुझ को अकेला छोड़ के तू तो चली गई
महसूस हो रही है मुझे अब मेरी कमी

कुर्सी, पलंग, मेज़, क़ल्म और चांदनी
तेरे बग़ैर रात हर एक शय उदास थी

सूरज के इन्तेक़ाम की ख़ूनी तरंग में
यह सुबह जाने कितने सितारों को खा गई

आती हैं उसको देखने मौजें कुशां कुशां
साहिल पे बाल खोले नहाती है चांदनी

दरया की तह में शीश नगर है बसा हुआ
रहती है इसमे एक धनक-रंग जल परी

बुधवार, 12 नवंबर 2008


कभी चाँद चमका ग़लत वक्त पर


कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िंदगी ने मुझे
मगर जो दिया, वह दिया देर से

हुआ ना कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब्-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से

कभी रुक गए राह में बे-सबब
कभी वक्त से पहले घर आई शब्
हुए बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया, मैं गया देर से

यह सब इत्तेफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वह ख़ामोशी सदा देर से

सजा दिन भी रौशन हुयी रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी, हुआ देर से

भटकती रही यूँही हर बंदगी
मिली ना कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से

poet = निदा फ़ाज़ली

शनिवार, 8 नवंबर 2008


औरत का वजूद : दुन्या में रंग


अल्लामा इक़बाल ने बिल्कुल सही कहा था के :

वजूद-ऐ-ज़न से है तस्वीर-ऐ-काइनात में रंग
(दुन्या की तस्वीर में औरत की वजह से ही रंग है)

औरत - इंसानी नस्ल को तक़्लीक़ करने की ज़मानत देती है.
औरत तो माँ भी है , बहन भी ... औरत तो बेटी भी है और बीवी भी.

औरत माँ हो तो उसके क़दमों के नीचे जन्नत होती है.
बहन हो तो मर्द की ग़ैरत होती है
बीवी हो तो दिल-ओ-जाँ का सुकून होती है
बेटी हो तो आंखों का नूर होती है

औरत - फूल का निखार , बुलबुल का तरन्नुम , नहरों की रवानी और कल्यों की महक लेकर पैदा होती है.
अगर औरत ना होती तो यह दुन्या बे-रंग और बे-रौनक़ होती.
औरत तो आँख की ठंडक है, दिल का सुरूर है, ज़ख्मों का मरहम है, दुखों का मदावा है, तन्हाई की हमदम और रफ़ीक़ है, मुसीबत में मुआविन है.

अगर औरत ना होती तो दुन्या की तस्वीर कुछ और ही होती. कोई रिश्ता ना होता, किसी से जुड़ने की कोई वजह न होती. माँ को मामता ना मिलती और रातों को जागने वाली आँखें ना होतीं. इंसान के किसी ज़ख्म के लिए कोई मरहम ना होता, दुःख दर्द की पहचान ना होती, पत्थर होते इंसान ना होता !
औरत के बग़ैर तो ज़िन्दगी एक सज़ा का नाम होती.

ज़िन्दगी के इस मैदान-ऐ-जंग में असल और फ़ैसला-कुन हक़ीक़त का एक ही नाम है : औरत !!


काइनात = विशव
नस्ल = वंश
तक़्लीक़ = पैदा करना
ग़ैरत = आत्म सम्मान
तरन्नुम = स्वर माधुर्य
रवानी = बहाव
बे-रौनक़ = उजाड़
मदावा = इलाज
मुआविन = सहायक
फ़ैसला-कुन = अंतिम निर्णय