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आदिल मंसूरी की गुजराती ग़ज़लें
adil mansuri, death of a poet
आदिल मंसूरी की एक ग़ज़ल
कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी
परबत का सीना चीर के नदी उछल पड़ी
मुझ को अकेला छोड़ के तू तो चली गई
महसूस हो रही है मुझे अब मेरी कमी
कुर्सी, पलंग, मेज़, क़ल्म और चांदनी
तेरे बग़ैर रात हर एक शय उदास थी
सूरज के इन्तेक़ाम की ख़ूनी तरंग में
यह सुबह जाने कितने सितारों को खा गई
आती हैं उसको देखने मौजें कुशां कुशां
साहिल पे बाल खोले नहाती है चांदनी
दरया की तह में शीश नगर है बसा हुआ
रहती है इसमे एक धनक-रंग जल परी
2 टिप्पणियां:
आदिल साहब स्वात्रयोत्तर गुजराती ग़ज़ल की आबरू थे.उन्हें अहमदाबाद में बहुत पहले देखा था.
अहमदाबाद से बिछुड़ने का ग़म उन्हें ताउम्र रहा.
खास कर उनकी बहुत ही अहमदाबाद के बीच बहती साबरमती नदी पर ग़ज़ल-
નદીની રેતમાં રમતું નગર મળે ના મળે.
आदिल साहब की ख़ास ग़ज़ल
ज्यारे प्रणय नी जग मां शरूआत थई हशे.
त्यारे प्रथम ग़ज़ल नी रजुआत थई हशे.
हैदराबादी साहब आदिल मंसूरी साहब हमारे शहर की रौनक थे उनकी कमी हमेशा इस शहर ने ही नहीं पूरा गुजरात ने की.बहुत ही बचैन तबीयत के शख़्श.अपने से ज़्यादा लोगों के ग़मों ले परेशान.
मैं अकसर उनकी गुजराती ग़ज़ल का ये मतला ताज़ा हालात पर कोट करता हूँ-
कशूए कहेवु नथी सूर्य के सवार विशे.
तमे कहो तो करूं बात अंधकार विशं.
मुझे सूरज या सुब्ह से विषय में कुछ नहीं कहना.
आप कहें तो अंधकार के विषय में बात करूँ.
गुजराती ग़ज़ल का बात आदिल साहब के बिना नहीं हो सकती.अल्लाह उनकी रूह को सुकून बख़्शेऔर परिवार को हिम्मत दे. आमीन.
डा० साहब , जनाब आदिल मंसूरी मेरे वालिद साहब के दोस्त थे. पिछले दो साल से मेरा उनसे ईमेल से राबता रहा है. मुझे तो यह बात आप ही से मालूम हुयी के शायर की हैसियत से आदिल साहब गुजरात में इस क़द्र मक़्बूल रहे हैं.
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