इस ग़ज़ल की video देखें : यहाँ
मेरी चाहत की बहुत लम्बी सज़ा दो मुझ को
कर्ब-ऐ-तन्हाई में जीने की सज़ा दो मुझ को
फ़न तुम्हारा तो किसी और से मंसूब हुआ
कोई मेरी ही ग़ज़ल आके सूना दो मुझ को
हाल बे-हाल है, तारीक है मुस्तक़बिल भी
बन पड़े तुम से तो माज़ी मेरा ला दो मुझ को
आख़री शमा हूँ मैं बज़्म-ऐ-वफ़ा की लोगो
चाहे जलने दो मुझे, चाहे बुझा दो मुझ को
ख़ुद को रख कर मैं कहीं भूल गई हूँ शाएद
तुम मेरी ज़ात से एक बार मिला दो मुझ को
poetess : निकहत इफ़्तेख़ार
कर्ब-ऐ-तन्हाई = तन्हाई का दर्द
फ़न = art / poetry
मंसूब = attached
तारीक = dark
मुस्तक़बिल = future
माज़ी = past
बज़्म-ऐ-वफ़ा = वफ़ा की महफ़िल
रविवार, 22 फ़रवरी 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
9 टिप्पणियां:
वाह बहुत खूब भाई
वाह बहुत खूब...
वाह क्या बात है.बहुत सुंदर
धन्यवाद
आनन्द आ गया-देख सुन कर.
एक गजल की दावत में दो का शुमार। दोनों ही गजलें बेहद खूबसूरत रहीं।
इस दावत के लिए शुक्रिया।
mahoday
aapki gajal ke matle ka kafiaa hai
सज़ा दो मुझ को
jiska upyog aapne misra ula aur misra saanee dono me kiya hai aur kaafiaa (ee) ki maatra ko rakha hai
magar aage ke sheron me( दो मुझ को)
kafiya ka istemaal kiya hai jisse gajal me kaafiaa ka dosh aa raha hai aur gajal ka sundary ja raha hai
kripya sudhaar karen
अनिल कान्त, महेन्द्र मिश्र, राज भाटिय़ा, Udan Tashtari और विष्णु बैरागी
आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया.
venus kesari
प्रिया venus kesari जी,
इस ग़ज़ल की रदीफ़ है : दो मुझ को
और क़ाफ़िया है : (स)ज़ा
इस ग़ज़ल में लफ़्ज़ "सज़ा" के हम-क़ाफ़िया अल्फ़ाज़ यह हैं :
(सु)ना , ला , (बु)झा , (मि)ला
बुरा ना मानें , आप शायद रदीफ़ और क़ाफ़िया में confuse हो रहे हैं.
बहुत सुंदर लगा हर एक शेर
bahut khoob
एक टिप्पणी भेजें