कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िंदगी ने मुझे
मगर जो दिया, वह दिया देर से
हुआ ना कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब्-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गए राह में बे-सबब
कभी वक्त से पहले घर आई शब्
हुए बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया, मैं गया देर से
यह सब इत्तेफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वह ख़ामोशी सदा देर से
सजा दिन भी रौशन हुयी रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी, हुआ देर से
भटकती रही यूँही हर बंदगी
मिली ना कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से
poet = निदा फ़ाज़ली
बुधवार, 12 नवंबर 2008
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3 टिप्पणियां:
bahut dilkash
निजा फ़ाजली साहब के शेरो का क्या कहना. बहुत सुंदर,आप का धन्यवाद इस सुंदर शेर कॊ हम तक पहुचने के िये
क्या बात है........शुक्रिया
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