कुछ दिन तो बसो मेरी आंखों में
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या
कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को
फिर ज़ख्म अगर महकाओ तो क्या
एक आइना था सो टूट गया
अब ख़ुद से अगर शरमाओ तो क्या
तुम आस बंधाने वाले थे
अब तुम भी हमें ठुकराओ तो क्या
दुन्या भी वही और तुम भी वही
फिर तुम से आस लगाओ तो क्या
मैं तनहा था मैं तनहा हूँ
तुम आओ तो क्या ना आओ तो क्या
जब देखने वाला कोई नहीं
बुझ जाओ तो क्या गह्नाओ तो क्या
एक वहम है यह दुन्या इस में
कुछ खोओ तो क्या और पाओ तो क्या
- ऊबैदुल्लाह अलीम
गुरुवार, 4 सितंबर 2008
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4 टिप्पणियां:
इस ग़ज़ल को गुलाम अली साहेब ने क्या गया है...दिल वाह वा..कर उठता है...बहुत ही सुंदर.
नीरज
sundar gajal ko padane ke liye aabhar.
ऊबैदुल्लाह अलीम साहब मेरे पसंदीदा शायरों में से हैं, बहुत आभार आपका.
उर्दू को यूही बढ़ते रहिये ..शुक्रिया आप का ...
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