शनिवार, 8 नवंबर 2008


औरत का वजूद : दुन्या में रंग


अल्लामा इक़बाल ने बिल्कुल सही कहा था के :

वजूद-ऐ-ज़न से है तस्वीर-ऐ-काइनात में रंग
(दुन्या की तस्वीर में औरत की वजह से ही रंग है)

औरत - इंसानी नस्ल को तक़्लीक़ करने की ज़मानत देती है.
औरत तो माँ भी है , बहन भी ... औरत तो बेटी भी है और बीवी भी.

औरत माँ हो तो उसके क़दमों के नीचे जन्नत होती है.
बहन हो तो मर्द की ग़ैरत होती है
बीवी हो तो दिल-ओ-जाँ का सुकून होती है
बेटी हो तो आंखों का नूर होती है

औरत - फूल का निखार , बुलबुल का तरन्नुम , नहरों की रवानी और कल्यों की महक लेकर पैदा होती है.
अगर औरत ना होती तो यह दुन्या बे-रंग और बे-रौनक़ होती.
औरत तो आँख की ठंडक है, दिल का सुरूर है, ज़ख्मों का मरहम है, दुखों का मदावा है, तन्हाई की हमदम और रफ़ीक़ है, मुसीबत में मुआविन है.

अगर औरत ना होती तो दुन्या की तस्वीर कुछ और ही होती. कोई रिश्ता ना होता, किसी से जुड़ने की कोई वजह न होती. माँ को मामता ना मिलती और रातों को जागने वाली आँखें ना होतीं. इंसान के किसी ज़ख्म के लिए कोई मरहम ना होता, दुःख दर्द की पहचान ना होती, पत्थर होते इंसान ना होता !
औरत के बग़ैर तो ज़िन्दगी एक सज़ा का नाम होती.

ज़िन्दगी के इस मैदान-ऐ-जंग में असल और फ़ैसला-कुन हक़ीक़त का एक ही नाम है : औरत !!


काइनात = विशव
नस्ल = वंश
तक़्लीक़ = पैदा करना
ग़ैरत = आत्म सम्मान
तरन्नुम = स्वर माधुर्य
रवानी = बहाव
बे-रौनक़ = उजाड़
मदावा = इलाज
मुआविन = सहायक
फ़ैसला-कुन = अंतिम निर्णय